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भारत के प्रमुख ऐतिहासिक व्यक्ति

भारत के प्रमुख ऐतिहासिक व्यक्ति


अश्वघोष



संस्कृत में बौद्ध महाकाव्य की रचना का सूत्रपात सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ने ही किया था अतः महाकवि अश्वघोष संस्कृत के प्रथम बौद्ध कवि हैं चीनी अनुश्रुतियों तथा साहित्यिक परंपरा के अनुसार महाकवि अश्वघोष सम्राट कनिष्क के राजगुरु एवं राजकवि थे इतिहास में कम से कम 2 कनिष्क का उल्लेख मिलता है द्वितीय कनिष्क प्रथम कनिष्का का पौत्र था दो कनिष्क के कारण अश्वघोष के समय असंदिग्ध रूप से निर्णीत नही था विन्टरनिट्स के अनुसार कनिष्क 125 ईसवी में सिहासन पर आसीन हुआ था तदनुसार अश्वघोष का स्थिति काल भी द्वितीय शती ई माना जा सकता है परंतु अधिकांश विद्वानों के मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है यह संवत्सर 78 ई से  प्रारंभ हुआ था
              इसी आधार पर  अश्वघोष का समय 100 ई   के लगभग मानते हैं कनिष्क का राज्य काल 78 से 125 ईसवी तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थिति काल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में से ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं जिनके आधार पर सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं चीनी परंपरा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा  कश्मीर के कुंड लव में आयोजित अनेक अन्तः साक्ष्य  भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं अश्वघोष कृत बुद्ध चरित का चीनी अनुवाद ईशा के पांचवी शताब्दी का लगता है इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा

      सम्राट अशोक का राज्य का ईस्सा पूर्व 269 से 232 ईसा पूर्व है यह तथ्य पूर्णता इतिहास सिद्ध है बुद्ध चरित्र के अंत में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे चीनी परंपरा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा गुरु मानने के पक्ष में है अश्वघोष कृत अभी धर्म पिटक की विभाषा नामणि एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गई थी

 संस्कृत के प्रथम बौद्ध महाकवि अश्वघोष के जीवनवृत्त से संबंधित अत्यल्प विवरण ही प्राप्त है सौन्दरनन्द नामक महाकाव्य की पुष्पिका   से ज्ञात होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था तथा यह साकेत के निवासी थे ये  महाकवि के अतिरिक्त भदंत आचार्य तथा महावादी उपाधियों से विभूषित थे उनके काव्य की अंतरंग परीक्षा से ज्ञात होता है कि वह जाति से ब्राह्मण थे तथा वैदिक साहित्य महाभारत रामायण के मर्मज्ञ विद्वान थे उनका साकेटक होना इस तथ्य का परिचायक है कि उन पर रामायण का व्यापक प्रभाव था




 श्री पार्श्वनाथ                                                                                                         




जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक शलाकापुरुष और महावीर के पूर्ववर्ती थे , जिनका जन्म लगभग आठवीं शती ई . पू . में पौष कृष्ण दशमी को वाराणसी के शासक अश्वसेन के घर हुआ . वामा इनकी माता थीं . इनका विवाह कुशस्थल के शासक प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती से हुआ . दीक्षा ग्रहण कर गहन साधना द्वारा इन्होंने वाराणसी में कैवल्य प्राप्त किया और जैन धर्म के चातुर्याम ( सत्य , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह ) की शिक्षा दी जो आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है . सिर के ऊपर तीन सात और ग्यारह सपंकणों के छत्रों के आधार पर मूर्तियों में इनकी पहचान होती है .


  काशी में भदैनी , भेलूपुर एवं मैदागिन में पार्श्वनाथ के कई जैन मन्दिर हैं जैन ग्रंथों के अनुसार पार्श्वनाथ से पहले जैन धर्म के 22 तीर्थंकर हो चुके थे . पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी के पूर्व के किसी तीर्थकर के विषय में कोई सुचना नहीं प्राप्त होती है . जैन धर्म के संत तथा प्रमुख अधिष्ठाता तीर्थकर कहलाते है . इन्हें जितेन्द्रिय ज्ञानी माना जाता है . जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर हुए जिनमें पाश्वनाथ तेईसवें तीर्थकर थे . पार्श्वनाथ वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति थे . जैकोबी महोदय तो इन्हें जैन धर्म का संस्थापक मानते हैं . ब्राह्मण परम्परा के अनुसार पार्श्वनाथ की गणना चौबीस अवतारों में की जाती है .


       तीस वर्ष की आयु में ही अपने गृह त्याग दिया और संन्यासी हो गये 83 दिन तक कठोर तपस्या और 84वें दिन उनके हृदय में ज्ञानज्योति प्रज्वलित हुई . इनका ज्ञान प्राप्ति का स्थान सम्मेय पर्वत था . ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सत्तर वर्ष तक अपने मत और विचारों का प्रचार - प्रसार किया तथा सौ वर्ष की आयु में देह त्याग दिया . पार्श्वनाथ ने चार गणों या संघों की स्थापना की . प्रत्येक गण एक गणधर के अंतर्गत कार्य करता था .


 सारनाथ जैन-आगम ग्रंथों में सिंहपुर के नाम से प्रसिद्ध है . यहीं पर जैन धर्म के 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ ने जन्म लिया था और अपने अहिंसा धर्म का प्रचार - प्रसार किया था . उनके अनुयाइयों में स्त्री और पुरुष को समान महत्व प्राप्त था . सुपार्श्व तथा चन्द्रप्रभा का जन्म भी काशी में हुआ था . पार्श्वनाथ की जन्म भूमि के स्थान पर निर्मित मंदिर भेलूपुरा मोहल्ले में विजय नगरं के महल के पास स्थित है



संत रैदास                                                                                                                                                   



रैदास सन्त कबीर के गुरुभाई थे । क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे . लगभग छ : सौ वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था . उसी समय  रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादर्भाव हुआ . रैदास का जन्म काशी में  चर्मकार कुल में हुआ था . उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है . रैदास ने साधु - सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था . जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया . वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे उनकी समयानुपालन की प्रवृत्ति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे .
 
       रैदास के समय में स्वामी रामानन्द काशी के बहुत प्रसिद्ध प्रतिष्ठित सन्त थे । रैदास उनकी शिष्य मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे . प्रारम्भ में ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था . साधु - सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था . उन्हें प्रायः मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करत थे उनके स्वभाव के कारण उनके माता पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे. कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया. रैदास पडोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय काम करते थे और शेष समय ईश्वर - भजन तथा साधु सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे ।
         उनके जीवन की छोटी - छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है . एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा स्नान के लिए जा रहे थे . रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले , ' गंगा स्नान के लिए में अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है . यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा . गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्तःकरण से तैयार हो वही काम करना उचित है मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है . ' कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा . रैदास  ने ऊँच - नीच की भावना तथा इश्वर - भक्ति के नाम पर किए जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुलकर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया .

         वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव - विभोर होकर सुनाते थे . उनका विश्वास था कि राम कृष्ण , करीम , राघव आदि एक ही परमेश्वर के विविध नाम है . वेद, कुरान , पुराण आदि ग्रन्थों एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया .

       उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार , परहित - भावना तथा सद - व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया।



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